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चिन्ना कथा

भगवान तथा उनका प्यारा भक्त



 

बंगाल में माधवदास नामक एक भक्त था, जिसने यह समझा कि उसने अपने ''घर'' को खो दिया, जब उसकी पत्नी का देहांत हुआ क्यों कि उसकी ''गृह '' लक्ष्मी'' का देहांत हुआ । अत: उसने अपनी सारी संपत्ति गरीबों में बाँट दी, गेरूवे वस्त्र  धारण किया और पुरी में एक यात्री  के रूप में भगवान जगन्नाथ ( कृष्ण भगवान का ही एक रूप) के दरबार में घूमता रहा । वहाँ पर उसने ऐसा घोर तप किया कि उसके लिये स्थूल मूर्ति काल्पिनक हो गई और उसे निराकार निरंतर भासित होने लगा । उसे समय और दूरी का भान न रहा और चेतना और अचेतना का भी फर्क न रहा । तब भगवान जगन्नाथ  तथा माँ सुभद्रा ( भगवान की शक्ति ) ने उसके पास वह सोने की थाली रखी जिसमें भगवान जगन्नाथ  के समक्ष  पुजारी लोग गर्भ गृह में भोजन रखाते थे । जब माधवदास जागा तो उसने भोजन देखा , जिसे उसने खा लिया तथा पुन: उस परम चेतना में तन्मय हो गया जिसे कुछ समय के लिये छोड़ा था ।

इसी बीच यह खबर फैली कि सोने की थाली खो गई, और यह माना गया कि उसे चोरी कर लिया गया तथा समुद्र के किनारे माधवदास के पास यह सोने की थाली पायी गयी । माधवदास को बंदी बनाया गया और पुलिस द्वारा बंदी गृह में निर्दयता से पीटा गया । पर माधवदास को इससे कोई फर्क नही पड़ा । उसी दिन रात को मुख्य पुजारी को स्वपन आया जिसमें पुजारी को कहा गया कि वह अब जगन्नाथ भगवान के लिये, भोजन न लायें । '' तुम मुझे खाना परोसते हो और जब में खा लेता हूँ तो तुम मुझे पीटने लगते हो'' । तब उस पुजारी को समझ में आया कि यह सब भगवान की लीला है  जिससे कि माधवदास की भक्ति के बारे में पता चले और भक्ति के सही स्वरूप के बारे में लोगों को समझा पायें ।

पुरी के कुछ विद्वानों और पंडितों को बंगाल के नवागुत की  प्रसिद्धि पसंद नहीं आई । तब उन्होने माधवदास को अपने बीच बुलाया और उसे शास्त्रार्थ   के लिये चुनौती दी । माधवदास इस तरह का पंङित नहीं था। माधवदास ने शास्त्रों को उसी सीमा तक पढ़ा ताकि वह चलने में लाठी जैसा काम आये और कार्य के लिये मार्गदरश्न करें , न कि एक लकडी या लटठा जैसा जो दूसरों को मारने के काम आये । अत: उसने शास्त्रार्थ शुरू होने के पहले ही हार स्वीकार कर लिया और उसने दस्तावेज में भी दस्तखत कर दिया वह हार स्वीकार कर रहा हैं । पंड़ितों का मुखिया इससे बहुत प्रसन्न था क्योंकि विद्वता में माधवदास का बहुत नाम हो गया था जिससे सभी पंड़ित डर रहे थे ।

उस पंड़ित ( प्रमुख) ने उस माधवदास द्वारा दिया गया दस्तावेज ले कर काशी पहुँचा ताकि अपने विजय के प्रतीक को वहाँ प्रदर्शित करे । वहाँ पर उसने वह दस्तावेज दिखाकर यह बतलाने की कोशिश की कि वह माधवदास से भी उत्कृष्ट है अत: वे सभी काशी के पंड़ित उसका आदर करें ।

        पर भगवान अपने भक्त का निरादर नहीं होने देते । जब उस हस्ताक्षरित दस्तावेज को सभी के सामने खोलकर पढ़ा गया, उसमें यह पाया गया कि विजय माधवदास की हुई और नीचे हस्ताक्षर उस प्रमुख पंड़ित के थे जिसने कि अपनी हार स्वीकार की थी । जब अपने भक्त को कोई हानि पहुँचाना चाहता है या निरादर करना चाहता है तो भगवान कभी चुप नहीं रहते ।

 

- भगवान बाबा   


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पहली कड़ी - अंक - ०१ नवम्बर २००८
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